दोस्ती की अधूरी कहानी पूरी कीजिए

'अगले सोमवार तक पैसे लोटा देना, नहीं तो तेरे गांव जाकर तेरे पापा से वसूलूंगा....'
हंगामा सुनकर मैंने सीट से उठ कर देखा तो बाहर गैलरी में अंकुश को घेर कर तिवारी खड़ा था।तिवारी यानि अंकुश का मकान मालिक। अक्सर दफ्तर आता रहता था, इसलिए सब उसे जानने लगे।अंकुश को उसका किराया दिए महीने हो गए थे। दफ़्तर में शायद ही कोई हो, जिसे अंकुश ने कभी पैसे उधार नहीं लिए हो। ऑफिसबॉय तक उसे देखकर रास्ता बदल लेते। उससे भी माँगने में उसे शर्म नहीं आती थी।मैं थोड़ा लकी था।अंकुश मेरा दोस्त था...और उससे भी ऊपर, मेरे पास इतने पैसे भी नहीं होते थे कि उधार दे पाऊं.अंकुश पर मेरे भी पैसे आते थे, लेकिन उतने नहीं जितने तिवारी के जो अंकुश की सोने की चेन भी गिरवी लेकर बैठा था.
खैर! बैइज्जत होकर अंकुश सीधे मेरे पास आया।आते ही कहा, चल दीपक चाय पीकर आते हैं। मैं उठता हूं हाय बोला, अरे यार! तेरी तो कोई इज्जत है नहीं, पर तेरे घर वालों की तो है।तिवारी के पैसे दे क्यों नहीं देता।
अंकुश हंसते हुए बोला, दे दूंगा भाई, अब तू लेक्चर मत दे। हमारा सूरज, तीन चार दिन रुक जा.तेरे लिए बड़ा सरप्राइज है. 'आश्चर्य! कैसा आश्चर्य'? हां पूछते हुए मैंने अंकुश के साथ आहार निकाला ही था कितीन चार लड़कों ने हमारी ओर इशारा करते हुए कहा-वो रहा बदमाश, पकड़ो उसे।
माई कुछ समझ पता, तब तक अंकुश की धुनाई शुरू हो चुकी थी। बड़ी मुश्किल से मैंने उसे छुड़ाया। पता चला जनाब कॉलेज के कुछ लड़कों के भी पैसे खाकर बैठे थे। लड़के जाते-जाते धमाका हो गए, .... कल तक पैसे दे देना, नहीं तो तांगे तोड़ देंगे। हां सारा नजारा देखकर मैं सोच में पड़ गया।
अंकुश से मेरी दोस्ती बहुत गहरी थी और में यह जानता था की उसमे ऐसा कोई दुर्गुण नही था की उसे किसे से इतना उधार लेने की जरूरत पड़े। लेकिन यह घटना देख कर मुझे उसके जीवन पर खतरे की आशंका होने लगी। अंकुश बेरोजगार जरूर था लेकिन वह रात्रि में अपनी प्रतियोगिता परीक्षा की तैयारी किया करता था। मैने सोचा क्यों  न इसके घर गांव  जाकर बताया जाय जिससे शायद वे मदद कर सके।
अंकुश के गांव की दूरी ज्यादा थी ,लेकिन मित्र की मदद की भावना ने मुझे वहां पहुंचा दिया। अंकुश अपने परिवार का इकलौता पुत्र था, व तीन बहने थी जिसमें बड़ी की शादी हो गई थी ! पिता के पास थोड़ी सी पैतृक जमीन थी, मां ने अपने जेवर गिरवी रखकर उसे शहर पड़ने के लिए भेजा था।परिवार की सारी अपेक्षा अंकुश से थी। पिताजी ने बताया कि कुछ समय से खेती में नुकसान होने से वे अंकुश के लिए पैसे भेज  नही पा रहे है। शायद पिता को भी शहर के आवश्यक खर्चों की जानकारी नही थी । पिता के नजदीक होने से अंकुश वास्तविकता से परिचित था।
जब चलने लगा तो अंकुश की मां ने अपनी गुल्लक से कुछ पैसे निकाल कर उसे देने के लिए कहा। 
शायद इससे उसकी कुछ मदद हो जाए।
अंकुश के कमरे पर जब में पहुंचा तो तिवारी जी पैसे लेने के लिए अंकुश से बहस कर रहे थे। और उस दिन कुछ बलशाली लोगों को बुलाकर समान बाहर फेंकने की पूरा इंतजाम था। मां के द्वारा भेजे पैसे से तिवारी जी का बकाया तो निपट गया। लेकिन भोजन व अन्य व्यवस्था का प्रश्न बाकी था। मां के द्वारा भेजा गया सत्तू कुछ दिनों के लिए काफी था।
थोड़ी देर बाद पोस्टमैन घर पर आया उसने लिफाफे की रसीद ली।अंकुश ने मुझसे ही लिफाफा खोलने को कहा,अरे ये क्या अंकुश का चयन पुलिस सब इंस्पेक्टर के लिए हो गया था।और  यही सरप्राइज़ वह मुझे देने वाला था।
आज वह गरीब लोगों को साहूकारों के चुंगल से बचाता है उधारी वापस लेने वाले दोस्त अब मिल नही रहे, अब तिवारी जी भी घबराए से रहते है...
लेखक
ललित मोहन शुक्ला
E-7/99, अशोक हाउसिंग सोसाइटी 
अरेरा कॉलोनी भोपाल 462016
Ph 9406523120






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